भगवद्गीता यथारूप
कृष्ण अर्जुन के समक्ष नश्वर शरीर तथा नित्य आत्मा के मूलभूत अंतर की व्याख्या करते हैं। भगवान उन्हंे देहांतरण की प्रक्रिया, ब्रह्म की निष्काम सेवा तथा स्वरूप सिद्ध व्यक्ति के गुणों से अवगत कराते हैं। इस भौतिक जगत में हर व्यक्ति को किसी न किसी प्रकार के कर्म में प्रवृत्त होना पड़ता है। किंतु वे ही कर्म उसे इस जगत से बांधते, या मुक्त करवाते हैं। निष्काम भाव से परमेश्वर की प्रसन्नता के लिए कर्म करने से मनुष्य कर्म के नियम से छूट सकता है और आत्मा तथा ब्रह्म विषयक दिव्य ज्ञान प्राप्त कर सकता है, जो मोक्ष प्रदान करने वाला है। ज्ञानी मनुष्य, इस दिव्य ज्ञान की अग्नि से शुद्ध हो कर, सारे कर्म करता है और, अंतर से उन कर्मों के फल का परित्याग करता हुआ, शांति, विरक्ति, सहिष्णुता, आध्यात्मिक दृष्टि तथा आनंद की प्राप्ति करता है। अपने मन तथा इंद्रियों को नियंत्रित कर के ध्यान को परमात्मा पर केंद्रित करने से समाधि की स्थिति प्राप्त होती है। भक्तिपूर्वक भगवान की शरण ग्रहण करने से ही भगवान की विभूति, रूप, नाम तथा गुणों को समझा जा सकता है। भक्तिपूर्वक भगवान कृष्ण का आजीवन स्मरण करने से, विशेषतया मृत्यु के समय ऐसा करने से, मनुष्य भ्गवान के परम धाम को प्राप्त कर सकता है।
शुद्ध भक्ति को जागृत कर के ही मनुष्य कृष्ण के धाम को वापस जाता है; वर्ना चैरासी लाख योनियों में ही भटकता रहता है। समस्त कारणों के कारणस्वरूप तथा सर्वस्वरूप कृष्ण समस्त जीवों के परम पूजनीय हैं। भगवान कृष्ण अपने शिष्य अर्जुन पर असीम कृपा करते हुए उसे दिव्य दृष्टि प्रदान करते हैं और अपने विश्व रूप के दर्शन कराते हैं। कृष्ण बतलाते हैं कि उनका सर्वाकर्षक मानव रूप ही ईश्वर का आदि रूप है। मनुष्य श्ुाद्ध भक्ति के द्वारा ही इस रूप के दर्शन कर सकता है। भक्ति पथ का अनुसरण करने वालों में दिव्य गुण उत्पन्न होते हैं। जो व्यक्ति शरीर, आत्मा और परमात्मा के अंतर को समझ लेता है, उसे इस भौतिक जगत से मोक्ष प्राप्त होता है।
सारे देहधारी जीव भौतिक प्रकृति के तीन गुणों के अधीन हैं। ये हैं सतोगुण, रजोगुण तथा तमोगुण। जो लोग सतोगुण में स्थित होते हैं, वे सुख तथा ज्ञान के भाव से बंध जाते हैं। तमोगुण में स्थित व्यक्ति मोह, प्रमाद तथा आलस में बंधे रहते हैं। वैदिक ज्ञान का चरम लक्ष्य अपने आपको भौतिक जगत के बंधन से छुड़ाना और कृष्ण को भगवान मानना है। जो कृष्ण के परम स्वरूप को समझ लेता है, वह, उनकी शरण ग्रहण कर के, उनकी भक्ति में लग जाता है। शास्त्रसम्मत विधि से सतोगुण में रह कर किये गये कर्म हृदय को शुद्ध करते हैं और उच्चतम लोकों में जाने का मार्ग प्रशस्त करते हैं। रजोगुण में रह कर किये गये कर्मों से मनुष्य इसी लोक में भटकते रहते हैं। तमोगुण के व्यक्ति नीच योनियों को प्राप्त होते हैं। सतोगुणी व्यक्ति ही कृष्ण की भक्ति कर पाते हैं और कृष्ण के नित्य धाम को वापिस जा पाते हैं। इस संदर्भ में भगवद्गीता के दसवें अध्याय के श्लोक नं. 8, 9 10, 11 विशेष रूप में उद्धृत किये जाते हैं:
- अहं सर्वस्य प्रभवो मत्तः सर्व प्रवर्तते।
इति मत्वा भजन्ते मां बुधा भावसमन्विताः।। 8।। - मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्तः परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च।। 9 ।। - तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते।।10।। - तेषामेवानुकम्पार्थंमहमज्ञानजं तमः।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता’’।।11।।
इन श्लोकों का अर्थ हैै:
मै समस्त आध्यात्मिक तथा भौतिक जगतों का कारण हूं। प्रत्येक वस्तु मुझसे ही उद्भूत है। जो बुद्धिमान यह भली भांति जानते हैं, वे मेरे प्रेम और भक्ति में लगते हैं तथा हृदय से पूरी तरह मेरी पूजा में तत्पर होते हैं। मेरे शुद्ध भक्तों के विचार मुझमें वास करते हैं। उनके जीवन मेरी सेवा में अर्पित रहते हैं और वे, एक दूसरे को ज्ञान प्रदान करते हुए तथा मेरे विषय में बाते करते हुए, परम संतोष तथा आनंद का अनुभव करते हैं। जो प्रेमपूर्वक मेरी सेवा करने में निरंतर लगे रहते हैं, उन्हें मै ज्ञान प्रदान करता हूं, जिसके द्वारा वे मुझ तक आ सकते हैं। मैं, उनपर विशेष कृपा करने हेतु, उनके हृदयों में वास करते हुए, ज्ञान के प्रकाशमान दीपक के द्वारा, अज्ञानजन्य अंधकार को दूर करता हूं।
भगवान के इन वचनों को प्रमाण मानते हुए भगवान के प्रेम और भक्ति में लगना चाहिए।